क्या सांसदों तथा विधायकों को संसद या विधानसभा में वक्तव्य देने या मत डालने के लिये घूस लेने पर अभियोजन से छूट है अर्थात उनके संसदीय विशेषाधिकार से सम्बंधित अधिकार पर अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया है |वोट के बदले नोट केस में सुप्रीम कोर्ट ने 1998 के अपने नरसिम्हा राव जजमेंट के फैसले को बदल दिया तथा सांसदों-विधायकों को कानूनी संरक्षण देने से मना कर दिया |
इस लेख में-
1-क्या है मौजूदा मामला |
2-सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय |
3-संसदीय विशेषाधिकार क्या है |
4-संवैधानिक प्रावधान |
5-चुनौतियाँ |
6-संसदीय विशेषाधिकार से सम्बंधित अन्य निर्णय |
क्या है मौजूदा मामला-

हॉल ही में सुप्रीम कोर्ट की सात-न्यायाधीशों की पीठ ने फैसला सुनाया कि संसदीय विशेषाधिकार उन सांसदों-विधायकों को आपराधिक मुकदमें से नहीं बचायेगें,जो संसद या राज्य विधानसभा में वोट देने के लिये रिश्वत लेते है |
मौजूदा मामला झारखंड की विधायक गीता सोरेन से जुड़ा है | 2012 में झारखंड में राज्यसभा के चुनाव आयोजित हो रहे थे जिसमे गीता सोरेन पर आरोप लगे कि रिश्वत लेकर किसी एक पार्टी के पक्ष में मतदान किया | जब ये मामला सामने आता है तो इसकी शिकायत मुख्य चुनाव आयुक्त के सामने की जाती है तथा मुख्य चुनाव आयुक्त इस पूरे मामलें की जाँच सीबीआई को सौंप देते है तथा सीबीआई से जाँच का आग्रह किया जाता है | इसके बाद CBI द्वारा चार्जशीट दाखिल की जाती है जिसे हाई-कोर्ट में चुनौती दी जाती है | इस याचिका के पक्ष में गीता सोरेन द्वारा तर्क दिया जाता है कि भारतीय संविधान के आर्टिकल 194(2) उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है कि विधायक द्वारा सदन के अन्दर दिये गये किसी भी वोट को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है | हालांकि इस याचिका को HC द्वारा ख़ारिज कर दिया जाता है |तत्पश्चात ये याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की जाती है |
सर्वप्रथम SC इस मामलें में 2 जजों की बेंच बनाती है,फिर 3 जजों की बेंच बनाती है जिसके बाद यहाँ से निकल कर आता है कि यें मामला 1998 में नरसिम्हा राव फैसले को भी चुनौती देता है, क्योंकि नरसिम्हा राव का फैसला 5 जजों की बेंच द्वारा किया गया था इसलिए गीता सोरेन का मामला 5 जजों के बेंच के पास जाता है |जब 5 जजों की बेंच को ये लगता है कि 1998 के फैसले में कुछ गलती थी तो इसके बाद इस पूरे मामलें को 7 जजों के बेंच के सामने पेश किया जाता है | इसलिए इस मामलें में 7 जजों की बेंच ने अपना फैसला सुनाया है |
सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय-
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सांसद तथा विधायक सदन में घूस लेकर वोट देने के मुकदमें की कार्यवाही से नहीं बच सकते है | CJI चंद्रचूड की अध्यक्षता वाली 7 जजों की बेंच ने अपने ऐतिहासिक फैसलें में कहा कि विधायिका के किसी सदस्य द्वारा किया गया भ्रष्टाचार सार्वजानिक जीवन में ईमानदारी को समाप्त कर देती है |किसी भी प्रकार का भ्रष्टाचार संसदीय विशेषाधिकार द्वारा संरक्षित नहीं है |इसके साथ ही CJI ने कहा कि सांसदों-विधायकों द्वारा भ्रष्टाचार तथा घूसखोरी भारतीय संसदीय लोकतंत्र की कार्यप्रणाली को समाप्त कर देती हैं |
संसदीय विशेषाधिकार क्या है-
संसदीय विशेषाधिकार विशेष अधिकार, उन्मुक्तियां तथा छूटे है जो संसद के दोनों सदनों, इनकी समितियों तथा इनके सदस्यों को प्राप्त होते हैं |यह इनके कार्यों की स्वतंत्रता और प्रभाविता के लिये आवश्यक है |इन अधिकारों के बिना सदन न तो अपनी स्वायत्तता, महानता तथा सम्मान को संभाल सकता है और न ही अपने सदस्यों को किसी भी संसदीय उतरदायित्वों के निर्वहनों से सुरक्षा दे सकता हैं |
संविधान ने संसदीय अधिकार उन व्यक्तियों को भी दिए है जो संसद के सदनों या इसकी किसी भी समिति में बोलते तथा हिस्सा लेते हैं |इनमें भारत के महान्यायवादी तथा केंद्रीय मंत्री शामिल है |
यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि संसदीय अधिकार राष्ट्रपति के लिये नहीं है जो संसद का एक अंतरिम भाग भी है |
ये संसदीय विशेषाधिकार भारतीय संविधान,संसदीय परम्पराओं, संसद द्वारा निर्मित कानूनों,लोकसभा तथा राज्यसभा के नियमों और न्यायिक व्याख्याओं से प्राप्त होते है |
इसमें बोलने की स्वतंत्रता,संसदीय कर्तव्यों के दौरान दिए गये बयानों या किये गये कार्यों के लिये कानूनी कार्यवाही से छूट या न्यायिक हस्तक्षेप से कार्यवाही की सुरक्षा शामिल है |
संसदीय विशेषाधिकारों को दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
1-सामूहिक विशेषाधिकार-जिन्हें संसद के दोनों सदन सामूहिक रूप से प्राप्त करते है |
2-व्यक्तिगत विशेषाधिकार-जिसका प्रयोग सदस्य व्यक्तिगत रूप से करते हैं |
संवैधानिक प्रावधान-
*भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 तथा 122 संसद के विशेषाधिकारों को रेखांकित करते हैं |
*अनुच्छेद 105, संसद में बोलने की स्वतंत्रता प्रदान करता है और संसद या इसकी समितियों में दिए गये बयानों या वोटों के लिये कानूनी कार्यवाही से छूट प्रदान करता है |
*अनुच्छेद 122, न्यायालयों को प्रक्रियात्मक अनियमितताओं के आधार पर संसदीय कार्यवाही की वैधता पर सवाल उठाने से रोकता हैं |
*इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 194 तथा 212 राज्य विधानसभाओं के विशेषाधिकारों से संबंधित हैं |
चुनौतियाँ-
*संसदीय विशेषाधिकारों की व्याख्या कभी-कभी न्यायपालिका के साथ मतभेद का कारण बनती है |
*ऐसे उदाहरण सामने आये हैं, जहाँ विधायकों पर स्वयं को कानूनी कार्रवाइयों से बचाने या आलोचकों को डराने-धमकाने के लिये संसदीय विशेषाधिकारों का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया गया हैं |
*संसदीय विशेषाधिकारों को परिभाषित करने वाले स्पष्ट और व्यापक कानूनी ढांचे के अभाव के परिणामस्वरूप इन विशेषाधिकारों के दायरे तथा सीमाओं के सम्बन्ध में अस्पष्टता है|
*कुछ कानून निर्माता संसदीय विशेषाधिकारों के इच्छित उद्देश्य से परे जाने वाली गतिविधियों में संलग्न होकर अपने विशेषाधिकारों का अतिक्रमण कर सकते है |
*विधायकों के अधिकारों तथा विशेषाधिकारों को नागरिकों के अधिकारों के साथ संतुलित करना एक सतत् चुनौती है |
संसदीय विशेषाधिकार से सम्बंधित अन्य निर्णय-
सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसलों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि संसदीय प्रतिरक्षा संसद या विधानसभाओं में किये गये आपराधिक कृत्यों तक विस्तारित नहीं है |
के.आनंदन नांबियार (वर्ष 1951) मामले ने स्थापित किया कि गिरफ्तारी या हिरासत के संबंध में सासदों को आम नागरिकों से कोई विशेष दर्जा प्राप्त नहीं है |
केरल राज्य बनाम के.अजित और अन्य (2021) मामले ने इस बात पर जोर दिया कि विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तियां सांसदों को सामान्य कानूनों, विशेष रूप से आपराधिक कानूनी प्रतिरक्षा प्रदान नहीं करती है |
ये निर्णय संसदीय विशेषाधिकारों को जवाबदेही तथा विधि के शासन के साथ संतुलित करने की आवश्यकता पर प्रकाश डालते है |